महाभारत युद्ध का निर्णायक क्षण: कर्ण, अर्जुन और श्रीकृष्ण का नीति संवाद

कर्ण की मृत्यु से पूर्व श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद | महाभारत प्रसंग

कर्ण अपनी मृत्यु को सन्निकट देखकर अर्जुन से नीतिगत व्यवहार का अनुरोध करता है – श्रीकृष्ण का उत्तर

महाभारत केवल एक युद्धकथा नहीं बल्कि धर्म और अधर्म के संघर्ष की सबसे महान व्याख्या है। कुरुक्षेत्र में जब कर्ण और अर्जुन का युद्ध अपने निर्णायक चरण पर पहुँचा, तब कर्ण के रथ का पहिया धरती में धँस गया। उस समय कर्ण ने अर्जुन से कुछ क्षणों का समय माँगा ताकि वह अपना रथ ठीक कर सके। अर्जुन यह सुनकर दुविधा में पड़ गया, किंतु श्रीकृष्ण ने उसे धर्म की वास्तविक परिभाषा समझाई और युद्ध जारी रखने को कहा।

कर्ण का अर्जुन से निवेदन

कर्ण ने कहा – “अर्जुन! तुम महान योद्धा हो। मुझसे धर्मयुक्त युद्ध करो। अभी मेरे रथ का पहिया धँस गया है, मुझे थोड़ी मोहलत दो।” यह सुनकर अर्जुन विचलित हो गया, क्योंकि उसके सामने एक संकट खड़ा था – क्या युद्ध में नीतिपूर्ण आचरण दिखाए या कृष्ण की आज्ञा माने?

“जब शत्रु न्याय की बात करे, तब उसके पिछले कर्मों को देखना चाहिए।” – श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण का कड़ा उत्तर

श्रीकृष्ण ने कर्ण को उसके कुकृत्यों की याद दिलाई और कहा:

  • जब द्रौपदी का अपमान भरी सभा में हुआ, तब तुम्हारा धर्म कहाँ था?
  • जब पांडवों को छलपूर्वक जुए में हराया गया, तब धर्म कहाँ था?
  • जब अभिमन्यु को अधर्मपूर्वक घेरकर मारा गया, तब धर्म कहाँ था?
  • जब पांडवों को वनवास दिया गया और राज्य से वंचित रखा गया, तब धर्म कहाँ था?

कृष्ण ने स्पष्ट कहा – “अब जब तुम्हारे अपने कर्म तुम्हें घेरे हुए हैं, तुम धर्म की दुहाई क्यों दे रहे हो? अर्जुन! यह समय दया का नहीं, बल्कि धर्म की रक्षा करने का है।”

“सत्य धर्म वह है, जो हर परिस्थिति में न्याय का साथ दे।”

कर्ण का चरित्र और द्वंद्व

कर्ण एक महान योद्धा और दानवीर था। उसकी उदारता के कारण उसे दानवीर कर्ण कहा जाता था। किंतु उसका सबसे बड़ा दोष यह था कि उसने सदैव दुर्योधन का साथ दिया, चाहे वह कितना भी अन्यायी क्यों न हो। यही कारण है कि कर्ण का व्यक्तित्व एक वीर और त्रासदीपूर्ण नायक के रूप में देखा जाता है।

अर्जुन की दुविधा और श्रीकृष्ण का मार्गदर्शन

अर्जुन कर्ण की विनती सुनकर क्षणभर के लिए विचलित हो गया। किंतु श्रीकृष्ण ने उसे याद दिलाया कि धर्म केवल औपचारिकता का नाम नहीं है, बल्कि न्याय और सत्य का पालन करना ही सच्चा धर्म है। इसीलिए अर्जुन ने श्रीकृष्ण की आज्ञा मानकर कर्ण पर प्रहार किया और उसका अंत कर दिया।

दार्शनिक संदेश

इस प्रसंग का सबसे बड़ा संदेश यह है कि अन्याय का साथ देने वाला अंततः नष्ट होता है, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो। श्रीकृष्ण ने दिखाया कि धर्म केवल युद्धक्षेत्र का नियम नहीं, बल्कि जीवन का शाश्वत नियम है। यदि हम अन्याय को सहते हैं या उसका साथ देते हैं, तो वह अधर्म ही कहलाता है।

“अन्याय का साथ देने वाला, चाहे कितना भी वीर क्यों न हो, अंततः नष्ट होता है।”

रश्मिरथी में कर्ण का प्रसंग

राष्ट्रकवि दिनकर ने अपने खंडकाव्य रश्मिरथी में इस घटना का अद्भुत चित्रण किया है। उन्होंने बताया कि कृष्ण ने कर्ण से कहा –

“मरा अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन, कहाँ पर सो रहा था धर्म उस दिन?”

यह पंक्तियाँ आज भी हमें झकझोर देती हैं और याद दिलाती हैं कि धर्म का वास्तविक स्वरूप न्याय और सत्य में निहित है

आज के समय में सीख

आज के समाज में भी यह प्रसंग उतना ही प्रासंगिक है। जब हम अन्याय को देखते हुए चुप रहते हैं, तो यह भी अधर्म ही है। श्रीकृष्ण का संदेश हमें प्रेरित करता है कि हर परिस्थिति में न्याय और सत्य का साथ दें।

FAQs – अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

1. क्या कर्ण वास्तव में धर्म का पक्षधर था?

कर्ण में कई महान गुण थे, लेकिन उसने सदैव दुर्योधन जैसे अन्यायी का साथ दिया। यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी।

2. अगर कर्ण पांडवों के साथ होता तो क्या महाभारत का परिणाम बदल जाता?

हाँ, कर्ण की क्षमता अपार थी। यदि वह पांडवों के साथ होता तो युद्ध का परिणाम और भी शीघ्र निश्चित हो जाता।

3. कर्ण की मृत्यु को त्रासदीपूर्ण क्यों कहा जाता है?

कर्ण वीर था, लेकिन परिस्थितियों और गलत संगति के कारण उसका अंत अधर्म के पक्ष में हुआ। यही उसकी त्रासदी है।

4. इस प्रसंग से हमें क्या सीख मिलती है?

सीख यह है कि अन्याय का साथ देने वाला कभी धर्म का अधिकारी नहीं हो सकता। धर्म केवल वही है जो न्याय और सत्य के साथ खड़ा हो।

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