✅ एकलव्य की कहानी: महाभारत का अनसुना नायक
महाभारत में भीष्म, कर्ण, अर्जुन और द्रोणाचार्य जैसे नाम तो हर कोई जानता है। लेकिन एक और योद्धा है, जिसकी कहानी अक्सर परछाइयों में रह जाती है – एकलव्य।
सोचिए, जिसने अंगूठा काटकर भी धनुष चलाना नहीं छोड़ा, वो कितना महान योद्धा रहा होगा?
इस लेख में हम एकलव्य की पूरी गाथा जानेंगे –
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द्रोणाचार्य से मुलाकात और गुरु दक्षिणा
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अंगूठा दान की अनोखी कथा
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भागवत पुराण में एकलव्य का आगे का जीवन
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श्रीकृष्ण से युद्ध और वीरगति
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और सबसे अहम – एकलव्य से हमें क्या सीख मिलती है
एकलव्य कौन था?
एकलव्य निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र था। यानि वह निषाद जाति का राजकुमार था।
उस समय समाज में एक कठोर व्यवस्था थी – राजवंश और उच्च कुलों को ही शस्त्र-विद्या सीखने का अधिकार था।
लेकिन एकलव्य का सपना था कि वह भी एक दिन अर्जुन जैसा धनुर्धर बने।
क्या आपने गौर किया है? अक्सर इतिहास उन्हीं को याद रखता है, जिनके सपने दूसरों को असंभव लगते हैं।
द्रोणाचार्य और एकलव्य की मुलाकात
एक दिन छोटा सा एकलव्य गुरुकुल पहुँचा और द्रोणाचार्य से बोला –
“गुरुदेव! मुझे भी शस्त्र-विद्या सिखाइए।”
द्रोणाचार्य ने दुखी मन से जवाब दिया –
“मैं केवल राजकुमारों को शिक्षा देता हूँ, तुम्हें नहीं।”
यह सुनकर एकलव्य को गहरा धक्का लगा। लेकिन उसने हार नहीं मानी।
यही उसकी असली ताकत थी – ना हार मानने का जज़्बा।
मिट्टी की मूर्ति और साधना
एकलव्य ने जंगल में जाकर मिट्टी से द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई।
वह रोज उसी मूर्ति के सामने अभ्यास करता और गुरु मानकर प्रणाम करता।
धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाई।
लोग कहने लगे कि उसकी तीरंदाजी अर्जुन से भी बेहतर है।
सोचिए, बिना किसी औपचारिक शिक्षा के, सिर्फ लगन से उसने ऐसा कमाल कर दिखाया।
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AI GENRATED | "एकलव्य ने मिट्टी की मूर्ति बनाकर द्रोणाचार्य को गुरु मान लिया और स्वाध्याय से धनुर्विद्या सीखी।" |
गुरु दक्षिणा: अंगूठा दान
कहानी का सबसे भावुक पल यहीं आता है।
एक दिन द्रोणाचार्य ने देखा कि जंगल में कोई अद्भुत तीरंदाजी कर रहा है।
वह एकलव्य ही था।
जब उसने कहा कि “आप ही मेरे गुरु हैं”, तो द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा माँगी –
👉 उसका दाहिना अंगूठा।
ज़रा सोचिए, जिसने अपनी पहचान तीरंदाजी से बनाई हो, अगर उससे उसका अंगूठा ही माँग लिया जाए, तो कैसा लगेगा?
लेकिन एकलव्य ने बिना पल भर सोचे अपना अंगूठा काटकर अर्पित कर दिया।
यह केवल गुरु दक्षिणा नहीं थी, यह त्याग और निष्ठा का सबसे बड़ा उदाहरण था।
और अद्भुत यह कि अंगूठा कटने के बाद भी उसने हार नहीं मानी।
उसने दो उँगलियों से धनुष चलाने की नई तकनीक खोज ली।
आज की आधुनिक आर्चरी भी इसी तकनीक पर आधारित है।
भागवत पुराण में एकलव्य का आगे का जीवन
महाभारत में उसकी कहानी यहीं लगभग खत्म हो जाती है।
लेकिन भागवत पुराण हमें आगे की झलक देता है।
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पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगवेरपुर का राजा बना।
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उसने निषादों की एक मज़बूत सेना खड़ी की।
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उसका विवाह सुनीता नामक कन्या से हुआ।
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और अंगूठा कटने के बावजूद उसने धनुर्विद्या में महारत हासिल की।
क्या यह अद्भुत नहीं है कि जिसने सबसे बड़ी चोट खाई, वही अपनी सबसे बड़ी ताकत बन गया?
जरासंध और कृष्ण से युद्ध
एकलव्य मगध नरेश जरासंध के अधीन था।
इसी कारण वह जरासंध की ओर से मथुरा पर आक्रमणों में शामिल हुआ।
कहा जाता है कि श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति में हुए 17 युद्धों में एकलव्य ने पांडवों और यादवों की सेनाओं को कड़ी चुनौती दी।
18वें युद्ध में जब कृष्ण ने उसे देखा, तो वे हैरान रह गए।
बिना अंगूठे के भी वह अविश्वसनीय तरीके से तीर चला रहा था।
लेकिन कृष्ण जानते थे कि आगे चलकर यह शक्ति धर्मस्थापना में बाधा बन सकती है।
उन्होंने एक विशाल शिला से प्रहार किया और एकलव्य युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त हुआ।
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AI GENRATED | "भागवत पुराण के अनुसार, एकलव्य ने बिना अंगूठे के भी कृष्ण की सेना को कई बार चुनौती दी।" |
एकलव्य की विरासत और प्रेरणा
एकलव्य की गाथा सिर्फ त्याग की नहीं है, बल्कि यह हमें सिखाती है कि –
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मेहनत हर कमी को पूरा कर सकती है।
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गुरु केवल सामने बैठा व्यक्ति नहीं होता, उसकी प्रेरणा भी गुरु बन सकती है।
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सपने किसी जाति या परिस्थिति पर निर्भर नहीं करते।
निष्कर्ष
महाभारत में एकलव्य को भले ही गौण पात्र माना गया हो,
लेकिन उसकी कहानी आज भी दिलों में जिंदा है।
उसका अंगूठा दान त्याग का प्रतीक है।
उसकी निष्ठा हमें बताती है कि सच्ची लगन के सामने कोई बाधा बड़ी नहीं होती।
👉 एकलव्य हमें यह संदेश देता है – अगर हिम्मत है तो हालात बदल सकते हैं, वरना हालात आपको बदल देंगे।
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