भारतीय इतिहास का भूला-बिसरा योद्धा – जनरल जोरावर सिंह
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"डोगरा सेना के शेर – जनरल जोरावर सिंह, जिनकी बहादुरी ने हिमालय की चोटियों को भी जीत लिया।" |
जब हम भारतीय इतिहास के महान योद्धाओं की बात करते हैं, तो राणा प्रताप, शिवाजी महाराज और बाजीराव जैसे नाम तुरंत ज़हन में आते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक ऐसा सेनापति भी था जिसे “पूर्व का नेपोलियन” कहा जाता है? जी हाँ, हम बात कर रहे हैं डोगरा सेना के शेर – जनरल जोरावर सिंह की। उनकी गाथा बहादुरी, रणनीति और अदम्य साहस की मिसाल है।
सैनिक से सेनापति तक
जोरावर सिंह का जन्म अप्रैल 1784 में हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा ज़िले के अंसरा गाँव में हुआ था। साधारण परिवार से आने वाले इस बालक ने सिर्फ 14 साल की उम्र में सैनिक जीवन शुरू किया। हरिद्वार में रहते हुए उन्होंने तलवारबाज़ी, निशानेबाज़ी और प्रशासनिक कौशल सीखे।
सोचिए, उस उम्र में जहाँ आज बच्चे पढ़ाई और खेलों में लगे रहते हैं, वहीं जोरावर सिंह अपनी ज़िंदगी युद्धभूमि के लिए गढ़ रहे थे।
धीरे-धीरे उनकी ईमानदारी और परिश्रम ने उन्हें जम्मू के डोगरा राजा गुलाब सिंह की सेना तक पहुँचा दिया। यहाँ उन्होंने किले के प्रशासन से लेकर रसद की ज़िम्मेदारी तक संभाली। उनकी मेहनत रंग लाई और उन्हें किलेदार और फिर किश्तवाड़ का गवर्नर बना दिया गया।
लद्दाख अभियान – 1834
कहते हैं असली पहचान युद्धभूमि में ही होती है। 1834 में लद्दाख के गवर्नर ने राजा के खिलाफ मदद माँगी। जोरावर सिंह सिर्फ 5000 सैनिकों के साथ निकले और कठिन पहाड़ी रास्तों को पार करते हुए लद्दाख पहुँचे।
उनकी रणनीति इतनी बेहतरीन थी कि लद्दाख का राजा युद्ध छोड़कर शांति संधि करने को मजबूर हो गया। यह जीत सिर्फ एक अभियान नहीं थी, बल्कि भारतीय सेनापति जोरावर सिंह की बहादुरी का इतिहास में दर्ज हो जाना था।
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1834 में जोरावर सिंह ने सिर्फ 5000 सैनिकों के साथ लद्दाख पर विजय प्राप्त की। |
बाल्टिस्तान अभियान – 1840
क्या आप जानते हैं कि जोरावर सिंह ने सिर्फ लद्दाख ही नहीं, बल्कि बाल्टिस्तान पर भी अपनी विजय पताका फहराई थी?
1840 में बाल्टिस्तान के राजकुमार मोहम्मद शाह ने उनसे मदद मांगी। जोरावर सिंह 8000 सैनिकों के साथ निकले और राजधानी पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद मोहम्मद शाह को राजा बनाया गया।
इससे जम्मू-कश्मीर और उत्तर भारत की पूर्वी सीमाएँ मज़बूत हो गईं। सच कहें तो इस जीत ने डोगरा सेना की प्रतिष्ठा और भी बढ़ा दी।
तिब्बत अभियान और वीरगति – 1839
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तिब्बत की बर्फ़ीली जंगभूमि में लड़ते हुए जनरल जोरावर सिंह ने वीरगति प्राप्त की |
इतिहास गवाह है कि जोरावर सिंह चुनौतियों से कभी नहीं डरे। महाराजा की अनुमति मिलने के बाद वे लगभग 5000 सैनिकों के साथ तिब्बत की ओर बढ़े।
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रास्ते में ऊँचे पहाड़, बर्फ़ और आपूर्ति की कठिनाइयाँ थीं।
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यात्रा के दौरान उन्होंने मानसरोवर झील का भी दर्शन किया।
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आगे बढ़ते हुए उन्होंने तकलाकोट किले पर कब्ज़ा किया।
लेकिन अंतिम युद्ध में किस्मत ने साथ नहीं दिया। दुश्मन के तीर ने इस महान सेनापति को वीरगति दे दी। हालाँकि, उनके सैनिकों ने हिम्मत नहीं हारी और बदला लिया। सोचिए, दुश्मन तक उनकी रणनीति और साहस से इतना प्रभावित हुआ कि उनके लिए सम्मान के भाव रखता था।
योगदान और महत्व
जोरावर सिंह का नाम शायद हमारी स्कूल की किताबों में ज़्यादा न मिले, लेकिन उनका योगदान अमूल्य है। उन्होंने लद्दाख, बाल्टिस्तान और जम्मू-कश्मीर की सीमाओं को चीन और नेपाल से जोड़कर भारत की सुरक्षा सुनिश्चित की।
उनका जीवन हमें सिखाता है कि साहस, ईमानदारी और रणनीति से कोई भी बाधा असंभव नहीं होती।
निष्कर्ष
जनरल जोरावर सिंह सिर्फ एक सेनापति नहीं थे, बल्कि भारतीय इतिहास के अद्भुत योद्धा थे। उन्हें “पूर्व का नेपोलियन” कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। उनकी बहादुरी, नेतृत्व और त्याग आज भी हमें प्रेरित करते हैं।
हम सबके लिए यह सोचने वाली बात है – ऐसे महान सेनानी जिनका नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए था, वो आज भुला दिए गए हैं। लेकिन शायद यही हमारा कर्तव्य है कि उनकी कहानियाँ फिर से जीवित की जाएँ और आने वाली पीढ़ियों को सुनाई जाएँ।
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