पांडवों के वनवास में दुरवास ऋषि और अक्षयपात्र की अद्भुत कथा
परिचय
इन्हीं में से एक अद्भुत प्रसंग है दुरवास ऋषि और अक्षयपात्र की कथा।
यह घटना पांडवों के वनवास के समय घटी थी। इसमें द्रौपदी की भक्ति, उनका संकट और भगवान श्रीकृष्ण की कृपा, सब एक साथ देखने को मिलते हैं। सोचिए, जब सबकुछ खत्म होता दिख रहा हो और उसी समय भगवान खुद आकर रक्षा करें – इससे बड़ी राहत और क्या हो सकती है?
पांडवों का वनवास – संघर्ष भरा जीवन
आपको याद होगा, जुए में सबकुछ हार जाने के बाद पांडवों को 13 साल का वनवास और 1 साल का अज्ञातवास मिला था।
वनवास में उनका जीवन आसान नहीं था। राजमहल छोड़कर उन्हें कुटिया में रहना पड़ा। जंगल से फल-फूल लाकर जीना पड़ा।
युधिष्ठिर धर्म निभाते रहे। भीम अपने बल से काम संभालते। अर्जुन तपस्या और शस्त्र-विद्या में लगे रहे। नकुल-सहदेव जंगल और पशुओं की देखभाल करते। और द्रौपदी? वे सबका साथ निभातीं, घर संभालतीं, सबके लिए भोजन का इंतज़ाम करतीं।
लेकिन इतनी कठिनाई में भी उन्हें एक अद्भुत वरदान मिला – अक्षयपात्र।
द्रौपदी को मिला अक्षयपात्र
कहा जाता है कि द्रौपदी ने तपस्या से सूर्यदेव को प्रसन्न किया। सूर्यदेव ने उन्हें अक्षयपात्र दिया।
इस पात्र की खासियत यह थी कि जब तक द्रौपदी खुद भोजन न कर लें, तब तक यह असीमित भोजन देता रहता था।
यानी पांडवों और उनके अतिथियों को कभी भूखा नहीं रहना पड़ता था। सुनकर लगता है न, जैसे कोई जादू हो?
लेकिन एक दिन यह वरदान ही संकट का कारण बन गया।
दुरवास ऋषि का आगमन
दुरवास ऋषि – नाम तो आपने सुना होगा। वे अपने तेज और क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे। जब खुश होते तो आशीर्वाद देते, लेकिन जब नाराज़ होते तो सीधा श्राप!
एक दिन वे अपने सैकड़ों शिष्यों के साथ पांडवों की कुटिया पर पहुँचे।
उन्होंने युधिष्ठिर से कहा – “हम स्नान करके आएंगे, तब हमें भोजन चाहिए।”
युधिष्ठिर ने आदरपूर्वक हाँ कह दी। लेकिन समस्या यह थी कि उस दिन द्रौपदी पहले ही भोजन कर चुकी थीं।
अब अक्षयपात्र अगले दिन तक खाली था।
सोचिए, इतने बड़े ऋषि और उनके शिष्यों को बिना भोजन के कैसे वापस भेजा जाता? अगर वे क्रोधित हो जाते, तो पांडवों का जीवन संकट में पड़ जाता।
द्रौपदी का संकट और भगवान का स्मरण
द्रौपदी का मन घबराने लगा। उनके माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही थीं।
इतने बड़े ऋषि आ गए, लेकिन भोजन का कोई उपाय नहीं।
तभी उन्होंने पूरे विश्वास के साथ भगवान श्रीकृष्ण को याद किया।
उन्होंने मन ही मन कहा – “हे माधव! केवल आप ही मेरी लाज रख सकते हैं।”
श्रीकृष्ण की लीला
कहते हैं, भक्त की पुकार भगवान तक तुरंत पहुँचती है।
जैसे ही द्रौपदी ने याद किया, श्रीकृष्ण कुटिया में प्रकट हो गए।
वे मुस्कुराते हुए बोले – “बहन, पहले मुझे खाने को दो। मैं भूखा हूँ।”
द्रौपदी हैरान! “प्रभु, मेरे पास तो कुछ भी नहीं बचा है।”
लेकिन कृष्ण ने कहा – “अक्षयपात्र लाओ।”
जब पात्र देखा गया, तो उसमें एक अन्नकण और थोड़ा-सा साग चिपका हुआ था।
कृष्ण ने वही अन्नकण खा लिया और पानी पिया। और तभी हुआ चमत्कार!
दुरवास ऋषि और उनके सभी शिष्य, जो स्नान कर रहे थे, अचानक पूर्ण तृप्ति का अनुभव करने लगे। मानो उन्होंने भरपेट भोजन कर लिया हो।
अब वे कुटिया में भोजन करने लौटने की हिम्मत ही नहीं कर पाए। शर्म और संकोचवश वहीं से चले गए।
इस तरह पांडव एक बड़े संकट से बच गए।
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AI GENRATED "भगवान श्रीकृष्ण ने अक्षयपात्र का अन्न खा लिया और चमत्कार से दुरवास ऋषि और शिष्यों की तृप्ति हुई।" |
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AI GENRATED “दुरवास ऋषि और उनके शिष्य अक्षयपात्र से चमत्कारिक रूप से तृप्त हो गए।” |
इस कथा की सीख
यह प्रसंग केवल कहानी नहीं है। इसमें गहरी शिक्षा छिपी है –
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भक्ति और विश्वास की शक्ति – जब द्रौपदी ने सच्चे मन से कृष्ण को पुकारा, तो वे तुरंत मदद के लिए आ गए।
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संकट में धैर्य – पांडव घबराए नहीं, उन्होंने समाधान खोजा।
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कर्म और कृपा का मेल – मनुष्य को अपना प्रयास करना चाहिए, लेकिन अंत में ईश्वर की कृपा ही रक्षा करती है।
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अक्षयपात्र का प्रतीक – यह बताता है कि सच्चा विश्वास और संतोष जीवन में कभी कमी नहीं आने देता।
आज के समय में क्या सीखते हैं?
आज भी यह कथा हमें प्रेरित करती है।
जब कठिनाई आए, तो घबराने की बजाय विश्वास और धैर्य रखना चाहिए।
द्रौपदी की तरह भगवान को याद करना चाहिए।
युधिष्ठिर की तरह धर्म पर डटे रहना चाहिए।
और कृष्ण की तरह मुस्कुराकर समाधान खोजने की कला सीखनी चाहिए।
निष्कर्ष
महाभारत का यह प्रसंग – दुरवास ऋषि और अक्षयपात्र की लीला – हमें सिखाता है कि जब भक्त सच्चे मन से भगवान को पुकारता है, तो ईश्वर स्वयं रक्षा करते हैं।
यह केवल धार्मिक कथा नहीं, बल्कि जीवन दर्शन है।
अगर हम विश्वास, धैर्य और भक्ति के साथ चलते हैं, तो कोई भी संकट स्थायी नहीं रहता।
👉 तो आप क्या सोचते हैं? क्या श्रद्धा और विश्वास से असंभव भी संभव हो सकता है? अपनी राय कमेंट में ज़रूर बताइए।
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