भारतवर्ष में जाति की उत्पत्ति कब हुई? जाति व्यवस्था किसने बनाई?
(वैदिक काल से आधुनिक समय तक का गहन अध्ययन)
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भारतवर्ष में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति और विकास – वैदिक काल से आधुनिक युग तक |
जाति और वर्ण में अंतर
जाति (Jati) क्या है?
"जाति" शब्द का अर्थ है – जन्म से तय सामाजिक वर्ग।
यानि आप किस परिवार में पैदा हुए, उसी आधार पर आपका स्थान समाज में तय हो गया।
धीरे-धीरे यह व्यवस्था कठोर होती गई और इसमें जड़ता आने लगी।
वर्ण (Varna) क्या है?
अब ज़रा "वर्ण" को समझते हैं।
"वर्ण" शब्द संस्कृत के "वृ" धातु से आया है, जिसका अर्थ है – चुनना।
यानि समाज का वर्गीकरण आपके कर्म और गुण के आधार पर होता था, जन्म के आधार पर नहीं।
चार वर्ण (ऋग्वेद – पुरुष सूक्त)
ऋग्वेद में समाज को चार वर्गों में बाँटा गया:
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ब्राह्मण – ज्ञान और शिक्षा देने वाले।
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क्षत्रिय – राज्य की रक्षा और युद्ध करने वाले।
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वैश्य – व्यापार, कृषि और पशुपालन करने वाले।
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शूद्र – सेवा, श्रम और कारीगरी करने वाले।
👉 शुरुआती दौर में यह वर्ग जन्म से तय नहीं थे। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता और कर्म के आधार पर किसी भी वर्ण में जा सकता था।
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भारतवर्ष में वर्ण |
वैदिक काल में जाति/वर्ण व्यवस्था
ऋग्वेद (पुरुष सूक्त – 10.90) में एक मशहूर श्लोक है –
"ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥"
कई लोग इसे शाब्दिक अर्थ में ले लेते हैं कि समाज के अलग-अलग वर्ग शरीर से पैदा हुए।
लेकिन असल में यह प्रतीकात्मक था –
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ज्ञान (मुख) → ब्राह्मण
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शक्ति (बाहु) → क्षत्रिय
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उत्पादन (जंघा) → वैश्य
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सेवा (पाँव) → शूद्र
सोचिए, अगर मुख न हो तो शरीर अधूरा है, और अगर पैर न हों तो चल नहीं सकता।
यानि समाज के हर वर्ग की भूमिका उतनी ही ज़रूरी है।
यजुर्वेद (26.2) में भी कहा गया है – "सभी मनुष्य भाई-भाई हैं।"
यानि शुरुआती वैदिक काल में जाति कोई ऊँच-नीच का सवाल नहीं था, बल्कि एक तरह का कार्य-विभाजन था।
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चार वर्ण – ब्राह्मण (ज्ञान), क्षत्रिय (शक्ति), वैश्य (उत्पादन) और शूद्र (सेवा |
Suggested Internal Links
"चार वर्ण (ऋग्वेद – पुरुष सूक्त)" → ऋग्वेद में वर्ण
"ज्ञान (मुख) → ब्राह्मण" → ब्राह्मण का इतिहास
उपनिषद और गीता का दृष्टिकोण
उपनिषदों ने एक अहम बात कही –
👉 "आत्मा न तो ब्राह्मण है, न शूद्र। आत्मा सबमें समान है।"
इससे साफ होता है कि उस समय आध्यात्मिकता को जाति से ऊपर रखा गया।
भगवद्गीता (अध्याय 4, श्लोक 13) में भगवान कृष्ण कहते हैं –
👉 "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।"
(समाज के चार वर्ण बनाए गए, लेकिन उनका आधार गुण और कर्म है, जन्म नहीं।)
यानि अगर आपके पास ज्ञान है, तो आप शिक्षक बन सकते हैं।
अगर आपके अंदर वीरता है, तो आप योद्धा बन सकते हैं।
यहाँ जन्म नहीं, बल्कि कर्म असली पहचान था।
रामायण और महाभारत के उदाहरण
धर्मग्रंथों की कहानियाँ इस विषय को और गहराई से समझाती हैं।
रामायण
रामायण में एक प्रसंग आता है – शबरी (जो भीलनी थीं) ने भगवान राम को बेर खिलाए।
राम ने बिना झिझक उन्हें खाया।
यह बताता है कि भक्ति और प्रेम जाति से कहीं ऊपर है।
रामराज्य का आदर्श भी यही था – जहाँ हर वर्ग को समान महत्व मिले।
महाभारत
महाभारत में भी कई उदाहरण हैं।
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विदुर, जो शूद्र माता से जन्मे थे, पूरे महल में सबसे ज्ञानी और धर्मनिष्ठ माने गए।
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एकलव्य, जो निषाद पुत्र था, धनुर्विद्या में अद्भुत था।
कृष्ण ने अर्जुन से साफ कहा – श्रेष्ठता का आधार कर्म है, न कि जन्म।
सोचिए, अगर जन्म ही सबकुछ तय करता तो विदुर जैसे लोग इतिहास में इतने सम्मानित क्यों होते?
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